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सतयुग दर्शन वसुन्धरा में राम नवमी यज्ञ महोत्सव का दूसरा दिन

मैट्रो प्लस
फरीदाबाद, 14 अप्रैल (नवीन गुप्ता): सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित राम नवमी यज्ञ महोत्सव के द्वितीय दिवस  सजन जी ने गुणवान व्यक्ति कैसे बनना है, इसके विषय में बताते हुए कहा कि व्यक्ति व वस्तु की निजी विशेषता, धर्म या लक्षण को गुण कहते हैं। उपभोक्ता को वस्तु के प्रभाव या परिणाम की जानकारी होनी आवश्यक है ताकि वह किसी ऐसी वस्तु का प्रयोग न कर बैठे जो उसके लिए अहितकर हो। उन्होंने कहा कि विद्या द्वारा ही किसी वस्तु के लाभ या उसके लाभप्रद तत्व को जाना जा सकता है। इस कला में दक्ष यानि गुणों का पारखी मानव ही केवल उन पदार्थों को धारण करता है जिनके प्रभाव द्वारा परिणाम स्वास्थ्यवर्धक हो यानि उसके अंतर्निहित त्रिगुण यानि सत्व, रज और तम् आवश्यकता अनुरूप सदा संतुलित बने रहें। ध्यान दो अज्ञान के कारण, इसमें क्षणिक भी चूक या लापरवाही भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगों व दोषों यानि अवगुणों की उत्पाित का कारण बन सकती है। इसीलिए उन्होंने कहा कि हर मानव को, हर वस्तु में निहित गुण को अपने अन्दर धारण करने से पहले विवेकशक्ति द्वारा उसको समझना चाहिए और तत्पश्चात् अपने ह्मदय को गुणों की खान बना, मन-वचन-कर्म द्वारा, उनका सत्यनिष्ठा व प्रसन्नता से प्रयोग कर, अपने ऊपर उपकार करना चाहिए यानि प्रत्येक मानव परस्पर गुणों का ही बखान करे व उस वस्तु या व्यक्ति विशेष को आदर दें। मानव को कभी भूल कर भी गुणघाती वृति नहीं अपनाना चाहिए अर्थात् किसी के गुण पर घात लगा कर उसको दोषों में फँसाने का यत्न नहीं करना चाहिए।
श्री सजन जी ने कहा कि कुछ भी धारण करते समय या परस्पर गुणों के आदान-प्रदान के समय उस वस्तु के परिमाण से अधिक उसकी गुणवता पर ध्यान देने वाला व्यक्ति ही एक समझदार मानव कहलाता है। इसलिए मन में गुणों का विचार करना ही मानव-धर्म अनुसार एक मानव की आचार-संहिता का सुदृढ़ आधार कहलाता है और उसे सर्वगुण संपन्न बनाता है। उनके अनुसार हर मानव का नैतिकता का स्तर उसकी गुणवता के आधार पर ही मापा जाता है। यही स्तर ही उसके जीवन के हर पहलू में उसकी सफ़लता, उन्नति, यश-कीर्ति व भाग्य का निर्माता होता है।
श्री सजन जी ने कहा कि गुणों की दृष्टि से तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं यथा उत्तम, मध्यम व मंद अधम। अत: गुण धारणा द्वारा खुद गुणवान या निपुण बनकर, प्रत्येक को गुणी बनाने हेतु गुणों का बोध कराना परोपकार कहलाता है। यह क्रिया व्यक्ति विशेष को, परिवारजनों को व पूरे समाज को उनका आत्मदर्शन कराने जैसे उतम कृत्य के समान होती है। यहाँ यह भी याद रखने की बात है कि ज्यों-ज्यों मानव गुणों को धारण करता है त्यों-त्यों उसको अपने परमात्म-स्वरूप की पहचान पक्की होती जाती है और उसके गुणों का यशगान संसार में कीर्ति के रूप में होने लगता है। इसीलिए तो कहते हैं कि परमात्मा ही गुणों का घर है। इस संदर्भ में सजन जी ने उपस्थित सजनों से यह भी कहा कि एक गुणी ही अंतर्निहित अलौकिक शक्ति द्वारा, उस गुणेश्वर परमात्मा का सर्व-सर्व बोध कर सकता है व परस्पर एकता के भाव में बना रह सकता है। अत: हमें भी गुणधारणा का महत्व समझना चाहिए और इसके प्रति सतर्क होना चाहिए ताकि एक अच्छा इंसान बन हम हर प्रकार का पराक्रम दिखाने के योग्य हो जाएं। यही जीवन में विजयी होने का प्रतीक है। अंतत उन्होंने मन पर विजय प्राप्त कर संकल्प रहित हो आनन्दमय जीवन जीने हेतु सबसे कहा कि सजन श्री शहनशाह हनुमान जी की तरह आप तो गुणवान बनो ही साथ ही सबको भी वैसा ही जीवन जीना सिखाओ।
आगे बलवान के विषय में बताते हुए सजन जी ने कहा कि बल शक्ति का धाम है। जैसे शारीरिक बल, अध्यात्मिक बल व भौतिक बल। कोई बात दूसरों से मनवाने का गुण भी बल कहलाता है। बल ही एक व्यक्ति का अपने व्यक्तित्व में स्थित बने रहने व कुछ भी पराक्रम दिखाने का आधार, सहारा व भरोसा होता है। एक व्यक्ति के लिए अपनी शक्ति का ज्ञान होना व उसका धर्मानुसार प्रयोग करना अति आवश्यक है। जहाँ बल का सदुपयोग विकारों से निज रक्षा हेतु होता है वहीं इसके दुरूपयोग द्वारा ह्मदय में अभिमान जैसा दोष पनपने का भय भी उत्पन्न होता है, जिससे उग्रता का भाव पनपता है। इसके प्रभाव से मन में उठने वाले संकल्प यानि इच्छाएँ धर्मसंगत नहीं रहतीं और इसी कारण व्यक्ति विवेकहीन हो एक निर्मम शासक की तरह अपनी श्रेष्ठता खो बैठता है। फलत: न चाह कर भी मानव अनिष्ट करने की भूल कर बैठता है। ऐसा होने पर मानव के ह्मदय की स्थिति ही बदल जाती है और उसका मन अशांत हो उठता है। फिर वह दानवीय कर्म करने लगता है। इसलिए एक व्यक्ति के लिए अपने बल का प्रयोग सावधानी से करना आवश्यक होता है।
श्री सजन जी ने उपस्थित सजनों से इस के बारे में यह भी कहा कि जहाँ बल उत्साहवर्धक है वहीं इससे उत्पन्न जोश के प्रभाव से व्यक्ति होश भी खो बैठता है। इस संदर्भ में आज का साधारण मानव केवल शारीरिक शक्ति तथा आर्थिक सामथ्र्य के बलबूते पर जीवन जीने को ही, अपने बल उपयोग की सीमा समझता है। तभी तो उसके लिए न्यायसंगत जीवन जीना नामुमकिन हो गया है और दूसरों पर अपना आधिपत्य जमाना वह अपना अधिकार समझता है। परन्तु हकीकत में बलशाली किसी भी बला से नहीं डरता और सभी का शुभ चाहते हुए उसकी सब विपतियाँ अपने ऊपर लेने की सच्ची कामना करता है। इस संदर्भ में उन्होंने सभी को स्पष्ट किया कि सभी की शक्ति का हेतु परमात्मा है और परमात्मा के सृष्टि, पालन और प्रलय करने का सामथ्र्य यानि ब्राहृ शक्ति ही मनुष्य के हर कार्य की सफ़लता में सहायक विशेष साधन है। अत: समझो हमारी समस्त शक्ति परमात्मा के दिव्य ऐश्वर्य, जो नित्य है उस शक्तिनाथ की विभूति का एक कण मात्र है।
अंतत: उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति का बल ही उसके साँस लेने, बोलने, कुछ करने, देखने, पालना-पोसना करने, कुछ भी संग्रह करने, आकृति, रूधिर आदि व किसी को क्षति पहुँचाने की सामथ्र्य का प्रतीक होता है। बल के वर्धन द्वारा बलिष्ठ होकर जीवन जीना या बलहीन होकर दुर्बलता से जीवन जीना यह व्यक्तिगत सावधानी व यत्न पर निर्भर करता है। अत: अपना शारीरिक, अध्यात्मिक व भौतिक बल, सबल रखने हेतु सात्विकता यानि सत्य से अपने ख़्याल का नाता जोड़ो। ऐसा सुनिश्चित करने पर ही, सजन श्री शहनशाह हनुमान जी की तरह, मौत के भय से निर्भय हो, निर्विकारी जीवन व्यतीत करने के योग्य बन सकोगे। अंत में उन्होंने कहा कि इन्सान हो इन्सानी दिखाओ और बलशाली बनो व जीवन में जो कुछ भी करो सर्वहित को ध्यान में रख कर करो।

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