नवीन गुप्ता
फरीदाबाद, 11 फरवरी: प्रकृति अपने आप में बेहद अनूठी, सुंदर, आकर्षक, मनोहारी और जीवंत है। प्रकृति का हर रूप अपनी ओर आकृर्षित करता है, बस जरूरी है प्रकृति से प्रेम करने और समझने की। इसे हैदराबाद की नीलावेणी ने गंभीरता से समझा है, जिसकी झलक अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में देखी जा सकती है। जिन पत्थरों को आम लोग पानी में फेंकने या ठोकर मारकर खेलने में आनंद महसूस करते हैं उन्हीं पत्थरों को इस शिल्पकार ने प्राकृतिक रूप में ही रखकर अपनी रचनात्मकता से अनूठे रूप प्रदान किये है।
वृद्वावस्था की ओर अग्रसर नीलावेणी की जिंदादिली भी प्रकृति की देन है। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी रही हैं। उन्होंने नौवीं कक्षा से ही हैमर, जैवलिन थ्रो, डिस्कस थ्रो एवं शॉटपुट में हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया था। विवाह के उपरांत भी उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा और आज करीब 56 वर्ष की आयु में भी वे खेलों में भाग ले रही हैं। कठिनाईयों से भरे जीवन में उन्होंने कभी हार नहीं मानी। छोटी उम्र में विवाह होने पर भी वे खेलों में आगे बढ़ती रही। करीब 20 वर्ष पूर्व पति की आकस्मिक मृत्यु ने समस्याएं और बढ़ा दी, किंतु चार संतानों (एक पुत्री व तीन पुत्र) की जिम्मेदारी उन्होंने अच्छे से निभाई। सभी संतानों का विवाह हो चुका है, किंतु दामाद की मृत्यु ने उन्हें फिर से एक बड़ा झटका दिया। फिर भी वे टूटी नहीं और अपनी पुत्री की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रही हैं।
अच्छी शिक्षा के अभाव में नीलावेणी को नौकरी नहीं मिल सकी। वे केवल नौवीं कक्षा तक पढ़ी हैं। ऐसे में उन्होंने खेलों के सहारे और शिल्पकला की सहायता से आजीविका चलाई। उन्होंने गत् माह 5-9 जनवरी तक विदिशा, मध्यप्रदेश में आयोजित 37वीं राष्ट्रीय मास्टर्स एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में हिस्सा लेकर हैमर में स्वर्णिम आभा बिखेरी तथा जैवलिन थ्रो में कांस्य पदक झटका।
खेलों के साथ-साथ प्रकृति व हस्तशिल्प से नीलावेणी को अत्यंत प्रेम रहा है। यही कारण रहा कि उन्होंने प्रकृति में से ही शिल्पकला को खोज निकाला, जिसे उन्होंने स्टोन क्राफ्ट नाम दिया। इस कला के लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्डस में दर्ज किया गया है। इसके अलावा इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्डस तथा बुक ऑफ स्टेट रिकॉर्डस में भी उनका नाम अंकित हो चुका है। वे अपनी कला का प्रदर्शन ऑल इंडिया आर्ट एग्ििजबिशन में भी कर चुकी हैं। हालांकि सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में वे पहली बार आई हैं। उनका कहना है कि वे पत्थर के हिसाब से ही उसे आकार प्रदान करती है। इसके लिए वे केवल एम-सील का प्रयोग करती हैं, जिससे पत्थरों को आपस में जोड़कर अलग-अलग रूप प्रदान किया जाता है। उन्होंने कहा कि वे खेलने के लिए देश के अलग-अलग इलाके में जाती हैं तो वहीं से पत्थर एकत्रित कर लेती हैं। उन्होंने पत्थरों को श्री गणेश, गुड्डे, गुडिय़ा, जानवरों की आकृतियों, फल-सब्जियों के रूप, पक्षियों के रूपों में ढ़ाला है। एक्वेरियम के लिए भी उन्होंने पत्थरों को रूप दिया है। कला के पारखी नीलावेणी की मेज-कुर्सी के सामने से गुजरते है तो तुरंत ठहर जाते हैं और उत्सुकतापूर्वक जानकारी लेते है। इसके अलावा वे जूट पेंटिंग भी करती हैं।