मैट्रो प्लस से नवीन गुप्ता की स्पेशल रिपोर्ट
फरीदाबाद, 17 जुलाई: हम अक्सर शुभ (जैसे हवन अथवा पूजन) और अशुभ (दाह संस्कार) कामों के लिए विभिन्न प्रकार के लकडिय़ों को जलाने में प्रयोग करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी ऐसे किसी काम के दौरान बांस की लकड़ी को जलते हुए देखा है या नहीं?
भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक महत्व के अनुसार, हमारे शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित माना गया है। यहां तक की हम अर्थी के लिए तो बांस की लकड़ी का उपयोग करते हैं लेकिन उसे चिता में जलाते नहीं। हिन्दू धर्मानुसार जहां बांस जलाने से पितृदोष लगता हैं, वहीं जन्म के समय जो नाल माता और शिशु को जोड़ के रखती है, उसे भी बांस के वृक्षों के बीच में गाड़ते है ताकि वंश सदैव बढ़ता रहे।
क्या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है?:-
जानकारों के मुताबिक बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। लेड जलने पर लेड ऑक्साइड बनाता है जोकि एक खतरनाक नीरो टॉक्सिक है। हेवी मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते हैं। लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है यहां तक कि चिता मे भी नही जला सकते, उस बांस की लकड़ी को हम लोग रोज़ अगरबत्ती में जलाते हैं।
अगरबत्ती के जलने से उत्पन्न हुई सुगंध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। यह एक फेथलिक एसिड का ईस्टर होता है जोकि श्वास के साथ शरीर में प्रवेश करता है। इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवं हेप्टोटोक्सिक भी श्वास के साथ शरीर में अंदर पहुंचती है। इसकी लेशमात्र उपस्थिति कैंसर अथवा मस्तिष्क आघात का कारण बन सकती है। हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है। शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं भी अगरबत्ती का उल्लेख नही मिलता, सब जगह धूप ही लिखा है। हर स्थान पर धूप, दीप, नैवेद्य का ही वर्णन है। अगरबत्ती का प्रयोग भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है। इस्लाम मे ईश्वर की आराधना जीवंत स्वरूप में नही होती, परंतु हमारे यहां होती है। मुस्लिम लोग अगरबत्ती मज़ारों में जलाते है, उनके यहां ईश्वर का मूर्त रूप नहीं पूजा जाता। हम हमेशा अंधानुकरण ही करते है और अपने धर्म को कम आंकते है। जबकि हमारे धर्म की हर एक बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मानवमात्र के कल्याण के लिए ही बनी है। अत: सामथ्र्य अनुसार स्वच्छ धूप का ही उपयोग करें।